शनिवार, 14 जुलाई 2018

छूट गए वो हर बंधन

 टूट गए वो हर बंधन ,
 दृष्टा बनकर खुद को जो देखा । 

 जिस बंधन से खुद को ,
  था मैं जकड़े बैठा ।

 नियति एक कर्म भाव की ,
 कर्ता उस कर्ता में देखा ।

 भाव नही प्रतिफ़ल का कोई ,
 मन भाव परे जा कर बैठा ।

 दृष्टा बनकर खुद को देखा ।

 सब कर्म हुए कार्य भाव से ,
 सब कार्य हुए निमित्त भाव से ,
 बस जैसा वो कहता बैसा होता ।


 कर्म वही है कार्य वही है ,
 सर्वथा स्वीकार्य वही है ,
 सब उसकी ही माया का पोथा ।

 कुंठा कैसी भ्रांति कैसी ,
 अशान्त मन क्लांति कैसी ।

 दृष्टा है वो सम भाव से ,
 सूक्ष्म शरीर हँसता न रोता ।

 टूट गए वो हर बंधन ,
 दृष्टा बनकर खुद को जो देखा ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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