शनिवार, 14 जुलाई 2018

चलना ही तो जीवन है

कम शब्दों को लिखकर मैं ,
गहरे भाव सजाता हूँ ।

     खोजा करता हस्ति अपनी ,
     दिनकर सँग चलता जाता हूँ ।

 साँझ तले दिनकर छुपता ,
 अँधियारो में मैं खो जाता हूँ ।

       उजियारों से थककर मैं ,
      अंधियारों में थकान मिटाता हूँ ।

 हर रात निशा के आँचल में ,
 मैं जीवन फिर पा जाता हूँ ।

        सहज रही स्याह निशा मुझको ,
       अपनी छाया से भी छुप जाता हूँ ।

हार नही मानूँगा फिर भी मैं ,
खुद को अहसास दिलाता हूँ ।

     कभी हार नही कभी जीत नही ,
     जीवन में बस इतना ही तो पाता हूँ ।

   चलना ही तो जीवन है ,
  "निश्चल" चलता ही जाता हूँ ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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