गुरुवार, 27 सितंबर 2018

मुक्तक 532/535

532
यह रूह बिखर जाने दो ।
ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।
इन हसरतों की चाहत में ,
एक उम्र गुजर जाने दो ।
...533
बजन कुछ यूँ बढ़ता गया ।
हसरत ज़िगर धरता गया ।
यूँ तो रूह माफ़िक हवा के ,
पर संग रूह को करता गया ।
...534
एक नर्म निग़ाहों का खेल सा ।
फूल फूल का होता मेल सा ।
 बिखरते जज़्बात हवा में,
 फ़िज़ाओं से होता मेल सा ।
....535
थमते नही हालात हसरतों के हाथों ।
सजते नही आज शोहरतों के हाथों ।
कैसी यह कशमकश है वक़्त की ,
होते नहीं आज़ाद मोहलतों के हाथों ।
.... विवेक दुबे"निश्चल@..
डायरी 3

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