रीतता चला हूँ ।
सींचता चला हूँ ।
रूठते किनारे ,
डूबता चला हूँ ।
राह राह निहारे ,
खोजता चला हूँ ।
होंसला पुकारे ,
जीतता चला हूँ ।
जिंदगी दुलारे ,
जोश से भरा हूँ ।
आज के सहारे ,
काल से मिला हूँ ।
काल को बिसारे ,
आज को छला हूँ ।
धरा के सहारे ,
आसमाँ गढ़ा हूँ ।
रीतता चला हूँ ।
सींचता चला हूँ ।
.... *विवेक दुबे"निश्चल"@*.
डायरी 5(147)
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