गुरुवार, 27 सितंबर 2018

एक मुक़ाम

एक मुक़ाम वो भी था ।
 एक मुक़ाम यह भी है ।

 वो बड़ा आसान था ।
 यह नही आसान है ।

 लड़ते जंग कदम कदम ,
 जिंदगी बनी इम्तेहान है ।

 रितते रहे निग़ाहों से ,
 फिर जाने क्या गुमान है ।

है नही यह घर किसी का ।
 हर शय यहां मेहमान है ।

...विवेक दुबे निश्चल@.

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