सराहते हम रहे ।
बिसारते हम रहे ।
खींच कर निग़ाहों से ,
अक़्स से उभारते हम रहे ।
ये होंसलें तजुर्बों के ,
उम्र से संवारते हम रहे ।
टूटते सितारे फ़लक से,
जमीं को बुहारते हम रहे ।
ख़ाक होते रहे हवा में ,
नज्र से निहारते हम रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 5(146)
बिसारते हम रहे ।
खींच कर निग़ाहों से ,
अक़्स से उभारते हम रहे ।
ये होंसलें तजुर्बों के ,
उम्र से संवारते हम रहे ।
टूटते सितारे फ़लक से,
जमीं को बुहारते हम रहे ।
ख़ाक होते रहे हवा में ,
नज्र से निहारते हम रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 5(146)
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