गुरुवार, 27 सितंबर 2018

मुक्तक 536/540

536
यह निज़ाम कैसा निज़ामों का ।
अपनो से अपनो के बेगानों सा ।
 उलझ रहे हैं धागे प्रीत डोर के ,
 चिथता दामन तानो बानो का ।
... 537
मची चारो और हलचल है ।
आज से हुआ कल बेदखल है ।
हालात बदलते पल पल में ,
आता नही कल जैसा कल है ।
....538
हमे धोखे ही भा रहे ।
धोखे पर धोखे खा रहे ।
 भूला कर आज को ,
 हम आज से भरमा रहे ।
...539
शब्द शब्द के पार है ।
अभिव्यक्ति लाचार है ।
 जीतता रहा बस वही ,
 नियत नेक बेज़ार है ।
... 540
मद की हद है ।
नशा बेहद है ।
 पता नही किसी को ,
 किसकी क्या हद है ।

 विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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