937
बस इतनी सी जुबां पे बीमारी रखिए ।
चुप रह कर ज़बाबो की उधारी रखिए ।
न पड़ जाए रिश्तों में ख़लिश कही कोई ,
इस बात की हर बात में तैयारी रखिए ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
938
क्या कल की चाहत में सँग आज रखेगा ।
जो प्रश्नों को अपने उत्तर के बाद रखेगा ।
याद नहीं आज कही पर भी कोई तेरी ,
क्या बाद तेरे कोई तुझको याद रखेगा ।
......'निश्चल"@....
939
ढूँढती है निगाहें , निगाहों में ऐतबार ,
शहर अब में मुझे हमदर्द नही मिलते ।
देखकर बे-ऐतबारी , ज़माने की ,
हँसी में मेरी ,अब दर्द नही मिलते ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
940
उम्र ज्यों ज्यों मुक़ाम से गुजरती गई ।
तेरे इश्क़ की दीवानगी बढ़ती गई ।
बहता रहा दरिया किनारे छोड़ कर,
चाह आगोश समंदर को भरती रही ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
941
जिसकी दम पे दुनियाँ जीतने चला था ।
वो ही तीर तरकश में नही मिला था ।
टूटती कमान अब रिश्तों की"निश्चल" ,
अब अपनो को अपनो से गिला था ।
....."निश्चल"@..
डायरी 7
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें