शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

मुक्तक 937/41

 937

बस इतनी सी जुबां पे बीमारी रखिए ।

चुप रह कर ज़बाबो की उधारी रखिए ।

न पड़ जाए रिश्तों में ख़लिश कही कोई ,

इस बात की हर बात में तैयारी रखिए ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...

938

क्या कल की चाहत में सँग आज रखेगा ।

जो प्रश्नों को अपने उत्तर के बाद रखेगा ।

याद नहीं आज कही पर भी कोई तेरी ,

क्या बाद तेरे कोई तुझको याद रखेगा ।

......'निश्चल"@....

939

ढूँढती है निगाहें , निगाहों में ऐतबार ,

शहर अब में मुझे हमदर्द नही मिलते ।

देखकर बे-ऐतबारी , ज़माने की ,

हँसी में मेरी ,अब दर्द नही मिलते ।

     ....विवेक दुबे"निश्चल"@...

940

उम्र ज्यों ज्यों मुक़ाम से गुजरती गई ।

तेरे इश्क़ की दीवानगी बढ़ती गई ।

बहता रहा दरिया किनारे छोड़ कर,

चाह आगोश समंदर को भरती रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

941

जिसकी दम पे दुनियाँ जीतने चला था ।

वो ही तीर तरकश में नही मिला था ।

 टूटती कमान अब रिश्तों की"निश्चल" ,

 अब अपनो को अपनो से गिला था ।

        ....."निश्चल"@..

डायरी 7

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...