वादियाँ वीरान हैं ।
मच रहा घमासान है ।
इंसान के भेष में,
आया शैतान है ।
मानवता परेशान है ।
खामोश इंसान है ।
छल बल के दाम पे,
बिक रहा ईमान है ।
पाखंड बलवान है ।
साधू ही हैवान है ।
लुटता लाज श्रद्धा की,
हर्ता मान के प्राण है।
देखकर सब कुछ ,
चुप है विधाता भी।
शायद कलयुग का,
उसे भी भान है ।
.....विवेक दुबे©......
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें