मरता रावण साल दर साल।
जलता रावण साल दर साल ।
होता नही क्यों यह ख़त्म ,
हैं क्यों यह इतना विशाल ।
शायद यह पाता बल फिर उनसे,
आश्रय पा रहा है यह जिनसे,
बस पुतले ही जलते इसके ।
करते इसको जो स्वाहा ,
आते नेता जीतने जितने ,
कृत्य समाते इसके उनमे।
घूमे फिर यह वेष बदल ,
सँग नेता अपने दल बल ।
एक को मारें जन मानस राम ,
दूजा ओढ़े फिर रावण परिधान।
मानस ने मानस में जब भी राम चुना ,
त्याग राम को उस मानस ने ,
रावण का अभिमान चुना ।
छोड़ शरीर रावण ने नया रूप धरा।
निरंकुश मेघनाथ कुम्भकर्ण पर हाथ धरे ।
संकट में है आज भी धरा ,
कैसे अब धरती की लाज बचे।
मरें न रावण जब तक इनके मन से,
तब तक रावण साल दर साल जले ।
पा कर ऊर्जा फिर इनसे हुँकार भरे ।
साल दर साल बस रावण यूँ ही जले ।
..... विवेक दुबे °© ...
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