मंगलवार, 31 जुलाई 2018

मुखरित अविरल धाराएँ

मुखरित अविरल धाराएँ ,
 आज हिमालय की ।

 टूट रहीं हैं मर्यादाएं ,
 अब मदिरालय सी।

खंडित आज हिमालय,
 विस्मृत जल धाराएँ हैं ।

जीवन की ख़ातिर जीवन को,
  आज भुलाएँ है ।

 दृश्य तम नभ व्योम सी ,
 रिक्त पड़ी अभिलाषाएं है ।

  स्तब्ध श्वांस बस प्राणों में ,
  रक्त हीन सी हुई शिराएँ है ।

ढलते दिनकर सी ,
क्षितिज तले अब आशाएँ है ।

 भोर नही अब दूर तलक ,
 गहन निशा बाँह फैलाए है ।

 दिनकर के ही उजियारों में ,
 दिनकर के ही अब साए है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 31/7/18

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