ना कर तज़किरा तू ,
रंज-ओ-मलाल पर ।
छोड़ वक़्त को तू
वक़्त के ही हाल पर ।
...
वो चाहतों की चाहत,
ना रही कोई मलालत ।
खोजतीं रहीं निगाह ,
मेरी नज़्म-ए-ज़लालत ।
....
मैं लिखता चला निग़ाह से ।
जीत ना सका अपनी चाह से ।
होता रहा ग़ुम लफ्ज़ लफ्ज़ ,
गिरते रहे जो क़तरे निग़ाह से ।
विवेक दुबे"निश्चल"@..
रंज-ओ-मलाल पर ।
छोड़ वक़्त को तू
वक़्त के ही हाल पर ।
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वो चाहतों की चाहत,
ना रही कोई मलालत ।
खोजतीं रहीं निगाह ,
मेरी नज़्म-ए-ज़लालत ।
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मैं लिखता चला निग़ाह से ।
जीत ना सका अपनी चाह से ।
होता रहा ग़ुम लफ्ज़ लफ्ज़ ,
गिरते रहे जो क़तरे निग़ाह से ।
विवेक दुबे"निश्चल"@..
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