रविवार, 29 जुलाई 2018

एकाकी मैं

चलता मैं जिस पथ पर ।
एकाकी मैं उस पथ पर ।
 नही कहीं विश्राम कोई ,
 संग्रामों से इस पथ पर ।

 चलता मैं अथक निरंतर ,
 जीवन के इस पथ पर ।
 दीप्त रहीं कुछ आशाएँ ,
 मुड़ते जुड़ते हर पथ पर ।

 कुछ कंटक रहो पर भी ,
  पुष्प खिले मोद निरंतर ।
 तब तम साँझ ढ़ले भी ,
 अहसास बना दिनकर ।

  चलता मैं तम से तम तक ,
  तम हरता रहा दिवाकर ।
 अजित रहा जीवन पुष्कर ,
 चलता मैं जीवन पथ पर ।

    चलता मैं जिस पथ पर ।
    एकाकी मैं उस पथ पर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 29/7/18
डायरी 5(311

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