अब तो तम भी हारा है धुंधले से अंधियारों से ।
सावन भी भींग रहा है शुष्क पड़ी फुहारों से ।
दिनकर ही हरता है हर दिन अब दिन को ।
साँझे तडफे अब अपनी ही रात मिलन को ।
आभित नही नव आभा अपने उजियारों से ।
डरता है मुंसिफ़ अब तो अपने पहरेदारों से ।
हिलता है मचान खड़ा अपने ही आज सहारों से ।
देश टूट रहा है कदम कदम जात धर्म के नारों से ।
सत्ता की ख़ातिर खाते कसमें मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारों में ।
नित निज शीश सजाते निज स्वार्थ के ही हारों में।
प्राण गंवाते घाटी में सैनिक गद्दारों की घातों से ।
बहलाते हो तुम कुछ पल को शहीद के नारों से ।
मस्त हुए सत्ता के मद में सजा रहे नित नए श्रृंगारों को।
पूछो कुछ उस माँ से खोया जिसने अपने लालों को ।
लाज नही तनिक अब भी उलझे बस नारों में ।
कब जाएगा वो जन कश्मीर का अपनी छोड़ी बहारों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 31/7/18
डायरी 5(11)
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