बुधवार, 1 अगस्त 2018

मुक्तक

481
संग सा बना सँग आज,
 वक़्त के तक़ाज़े से ।
देखता हर शख़्स मुझे ,
 न देखने के इरादे से ।
.. 482
दर्द मैं बयां करता कैसे ।
 जुदा दिल से करता कैसे ।
 थे संग वो मेरे अपने ही ,
 उन्हें मैं बुत करता कैसे ।
....483
हसरतों के बाजारों में ।
उलफ़्तों के चौराहों में ।
लुटती रही अना ,
उम्र के दोराहों में ।
..484
बा-मोल मैं बे-मोल रहा ।
 इतना ही मेरा तोल रहा ।
 लगता ही रहा भाब मेरा ,
 जुबां जुबां मेरा बोल रहा ।
.... 
485
 पुकार तेरी सुन न सका वो ,
 ख़यालो में तेरे खोया था वो ।
 टूटकर किनारों से वो कोई ,
 एक दरिया सा बहा था वो ।
.... 
486
 पुकारता रहा एक चमन वीरानों से ।
 ग़ुम हुआ क्यूं वो आज पहचानों से ।
 एक हस्ती रही हरदम ही जिसकी , 
 खोजता मंज़िल अपनी अपने निशानों से । 
..... 
487
एक लफ्ज़ वो लिखेगा कभी ।
 एक लफ्ज़ मैं लिखूंगा कभी ।
 जोड़कर मैं लफ्ज़ लफ्ज़ से ,
 एक नज़्म कहूँगा फिर कभी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5
Blog post 1/8/18

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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