कितना संगीन यह जमाना है ।
इसका रंगीन हर फ़साना है ।
साथ दिल में भी रहकर ,
मिल ना पाया कोई ठिकाना है ।
दर्द होते रहे ही मयस्सर ,
दर्द भी दुआ का दीवाना है।
जो रूठता रहा वास्ते मेरे ,
आज फिर उसे मनाना है ।
छुपाकर अश्क़ अपने मुझे ,
चेहरा हंसी उसे दिखाना है ।
सिमेटकर मायूसीयाँ अपनी ,
नज़्म फिर एक मुझे सुनाना है ।
तंज देती रही दुनियाँ मुझको ,
हर तंज से "निश्चल" बेगाना है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 4/8/18
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