शनिवार, 28 जुलाई 2018

श्रृंगार हीन हुई थी

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श्रृंगार हीन हुई थी माता ,
दंश झेलकर अपने ही गद्दारों के ।

प्रण ले लिया था उसने भी ,
मैं सहजूंगा माता के श्रृंगारों को ।

 पाले था आज़ाद ख़यालों को ।
 देख देख अलबेले मतवालों को ।

 देख रहा था उसका बचपन भी ,
 गलते मातृभूमि के घावों को ।

 वचन निभाया प्रण प्राण से, 
 कफन बाँध आज़ादी के दीवानों का ।

आजाद रहा हूँ आजाद रहूँगा ,
 ख़ौफ़ बना था वो गोरों का ।

 देकर आहुति अपने प्राणों की ,
 आज़ादी की यज्ञ हवि में ।

 थकित पड़ी क्रांति ज्वाला में ,
 वो भर गया जोश जवानों सा ।

मातृ भूमि की रक्षा में ,
खाकर गोली सीने पर ,
 सींचा लहु देश प्रेम फुहारों सा ।

 रंगा राष्ट्र राष्ट्र प्रेम के जज्बे से ,
 काल बना जो उन गोरों का ।

 निकल पड़ीं टोलियां गली गली,
 नारा वन्दे मातरम् के घोषों का ।

 भर आज नयन श्रद्धा जल ,
 नमन करे कोटि कोटि जन ।

  वो चंद्र सरीखा दमक रहा ,
 शेखर बन माता के श्रृंगारों का ।

 उठो नौजवानों आवाहन करो ।
 दे माता की दुहाई आज उठो ।

 उठे न कोई आँख माता के आँचल पर ।
 आएँ न कोई छींटे माता के दामन पर ।

 एक प्रण तुम भी प्राण भरो ।
 शत्रु के सीने में बारूद भरो ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(19)

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