शनिवार, 28 जुलाई 2018

आज़ाद वतन

431
आज़ाद वतन की आज़ादी में ।
 आधी सी इस आवादी में ।

 बैर धुले है मज़हब के ,
 बंट गए कुछ जाति में ।

 लुप्त हुए है यूँ सब ,
अपनी ही आजादी में ।

 रंग उड़े उस गुलशन के ,
 चलती गोली वादी में ।

ताल ठोकते कुछ ,
सत्ता के मैदानों में ।

 जहर उगलते नित जो ,
 नित नए बयानों में ।

 रहा नही क्यों , देश प्रेम अब उनमें ,
 सजे हुए जो , खादी के परिधानों में ।

  लुप्त हुई आज़ादी ज्यों ,
 आजाद भगत , गांधी के बलिदानों में ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(20)

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...