समझता रहा कोई कोई समझाता रहा ।
रूठता रहा वो कोई कोई मनाता रहा ।
चलता रहा सफ़र राह-ए-जिंदगी पे ,
ज़िंदगी से फक़त इतना ही नाता रहा
बिखेर चंद क़तरे अश्क़ शबनम से ,
वो बागवां गुलशन सजाता रहा ।
उठते से तूफ़ां उन हवाओं से ,
वो फ़िज़ा चिराग़ जलाता रहा ।
फ़र्ज़-ए-कश्ती साहिल के वास्ते ,
वो खुद को नाख़ुदा बनाता रहा ।
"निश्चल" टूटकर भी टूट न सका कभी ,
वो संग अपने आपको दिखाता रहा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
रूठता रहा वो कोई कोई मनाता रहा ।
चलता रहा सफ़र राह-ए-जिंदगी पे ,
ज़िंदगी से फक़त इतना ही नाता रहा
बिखेर चंद क़तरे अश्क़ शबनम से ,
वो बागवां गुलशन सजाता रहा ।
उठते से तूफ़ां उन हवाओं से ,
वो फ़िज़ा चिराग़ जलाता रहा ।
फ़र्ज़-ए-कश्ती साहिल के वास्ते ,
वो खुद को नाख़ुदा बनाता रहा ।
"निश्चल" टूटकर भी टूट न सका कभी ,
वो संग अपने आपको दिखाता रहा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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