विकास को बांट कर ।
वसुधा को छाँट कर ।
जा पहुँचे आज हम ,
बिनाश के काल पर ।
विकृति को मानकर ।
प्रगति को जानकर ।
जा पहुँचे आज हम ,
तनाव के भाल पर ।
प्रकाश को पाल कर ।
अंधेरों को टाल कर ।
जा पहुँचे आज हम ,
भानू के गाल पर ।
गति को जान कर ।
वृत्ति को मान कर ।
जा पहुँचे आज हम ,
पतन की पाल पर ।
समझें न जान कर ।
बूझें न मान कर ।
जी रहे आज हम ,
अपने अभिमान पर ।
प्रकृति को साध कर ।
कण कण व्यापार कर ।
सो रहे आज हम ,
अपने ईमान पर ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
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