शनिवार, 28 जुलाई 2018

यह अखवार

यह अखवार हर दिन घर क्यों आता है ।
आता है आते ही आँखों में छा जाता है ।

 फिर लुटी आबरू मासूम अबला की ,
 बड़े बड़े लफ़्ज़ों में नजर आ जाता है ।

 फिर कटे कुछ सर ,बिके कुछ फिर धड़ ,
 सरमायेदार ख़ामोश नजर आता है ।

 यह अखवार ....

 टूट रहीं है छूट रही है डोरे जीवन की ,
 ज़ीवन से ज़ीवन अब डरता जाता है ।

 रिश्ते फटते अब रद्दी के कागज़ से ।
 रिश्तों का रिश्तों से एक रात का नाता है ।

 उजले से कोमल इस कागज़ पर ,
 स्याह स्याही से स्याह स्याह छप जाता है ।

 यह अखवार ....
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 28/7/18
डायरी 5(21)

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