यह पौष मास के जाड़े।
यह अलसाए से भुंसारे।
निकल पड़ा वो चौराहों पर,
सोचे प्रुभ कुछ जुगत भिड़ा दे।
मिल जाए कोई काम कहीं,
अपने पेट की आग बुझा ले।
मौसम कभी कोई असर नही ,
गर्मी वर्षा चाहे हो यह जाड़े ।
भाव बेदना शून्य हुई उसकी ऐसे,
जैसे हिम कण से पाला पड़ जावे।
मिल जाए कुछ अन्न उसे ,
झट से अपने उदर उतारे ।
हो जाए तन मन चेतन ,
फिर क्या गर्मी क्या जाड़े ।
...."निश्चल" विवेक दुबे..
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