शनिवार, 23 दिसंबर 2017

चलता मैं तपती राहों पे


कदम तले काँटे बिखरे मखमल के ।
आघातों से जख्म मिले हल्के हल्के ।

 चलता हूँ निर्जन मरु वन में मैं,
 धोखे बार बार मधु वन के मिलते । 

 हारी नही अभी जिंदगी फिर भी, 
 घूँट हलाहल के घूँट घूँट मिलते ।

 चलता मैं पथिक तपती राहों पर,
 वृक्ष घने हरे भरे नही अब मिलते ।

   .... ...... विवेक दुबे"निश्चल"@ ....

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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