कदम तले काँटे बिखरे मखमल के ।
आघातों से जख्म मिले हल्के हल्के ।
चलता हूँ निर्जन मरु वन में मैं,
धोखे बार बार मधु वन के मिलते ।
हारी नही अभी जिंदगी फिर भी,
घूँट हलाहल के घूँट घूँट मिलते ।
चलता मैं पथिक तपती राहों पर,
वृक्ष घने हरे भरे नही अब मिलते ।
.... ...... विवेक दुबे"निश्चल"@ ....
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