शनिवार, 23 दिसंबर 2017

कुछ ख्याल


हराकर उम्र को शौक पाले थे, बड़े शौक से ।
 बुझ गए चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।

दिए आईने ने हमे सहारे हैं।
 हुए आईने के जब हवाले हैं ।
  सहारा दे सच के दामन का,
 झूठ के सारे नक़ाब उतारे हैं।

झूठ कुछ भी नही।
 सच कुछ भी नही।
 सब ख़्याल हैं ख़यालों के,
  रब के सिवा कुछ भी नही।

शमा जली अंधेरों की कमी है।
 देखें हवा किधर को चली है।
  
झूठ कुछ भी नही।
 सच कुछ भी नही।
 सब ख़्याल हैं ख़यालों के,
  रब के सिवा कुछ भी नही।


  छूटता है कुछ छूट जाने दो ।
 रूठता है कोई रुठ जाने दो ।
 बहुत सहेजा मैंने रिश्तों को ,
  अब तो कुछ जी जाने दो ।

  ..... "निश्चल" दुबे विवेक ...

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