ज़मीन बिछाता आसमां ओढ़ता मैं
इस तरह खुद को खुद से जोड़ता मैं
हसरतों को हक़ीक़त से तोड़ता मैं
इस तरह खुद को खुद से जोड़ता मैं
...विवेक...
ज़माने का रिवाज ,
बिगड़ा बिगड़ा है ।
देख सादगी हमारी ।
हर शख़्स हमसे ,
उखड़ा उखड़ा है ।
....विवेक....
उसका भी एक मिजाज़ है..
मेरा भी एक मिजाज़ है....
सूरज में भी आग है...
चाँद में भी दाग है...
......विवेक....
शब्द लुटाता शब्द सजाता मैं ।
लिखता बस लिखता जाता मैं ।
खुद से खुद खुश हो जाता मैं ।
खुद को खुद से झुठलाता मैं ।
सच में कभी झूंठ सजाता मैं ।
झूंठ कभी सच से बहलाता मैं ।
.....विवेक....
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