विषय- नाखून
कुछ ज़ख्म कुदेरता मैं ।
नाखूनों से घेरता मैं।
उस रिसते मवाद को ,
नाखूनों पर फेरता मैं।
नाखूनों में पशुता साथ लिए अपनी,
धर्म जात की,लकीरें खिंचता मैं।
नख डुबाता पुराने ज़ख्म में फिर ,
नाखूनों को जतन से सींचता मैं।
बटवारे के जख्म नासूर बने,
इन नाखूनों के अहसान बड़े।
काटता नही कभी इन्हें में,
यही तो मेरे हथियार बने।
...."निश्चल" विवेक दुबे...
नाखूनों से तो अब चरित्र उधेड़े जाते हैं।
गोरी चमड़ी तो सफेद उजाले खा जाते हैं।
भरते दम अधम आश्रमो के अंदर,
बाबा भी अब भोगी कहलाते हैं।
करते श्रंगार अनछुए यौवन का ।
कौमार्य गुरु दक्षिणा में पाते हैं।
इंद्रप्रस्थ की नाक तले देखो,
भोग आश्रम खुल जाते हैं।
...."निश्चल"विवेक ....
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