शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

क़तरा क़तरा ज़िन्दगी

 क़तरा क़तरा ज़िंदगी ,
तनहा तनहा ज़िंदगी   ।
ख़ुशियों से सरोबार ज़िंदगी ,
ग़म के समन्दर में डूबती ज़िंदगी ।

 फेर के जाल में उलझी ज़िंदगी ,
जाल फ़रेब से दूर ज़िंदगी ।
अपने में ही सिमटती ज़िंदगी ,
अपनों के पास आती ज़िंदगी ।

सबसे दूर जाती ज़िंदगी ,
सब के पास आती ज़िंदगी ।
अपमान से शर्मशार ज़िंदगी ,
सम्मान से सर उठती ज़िंदगी ।

हर रंग में रंगी ज़िंदगी ,
कटती है ज़िंदगी ।
फिर वापस न आने के ,
अहसास दिलाती ज़िंदगी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

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