लौट आया मैं अब अपने ही शहर में।
अज़नबी सा हूं मग़र अपने ही शहर में ।।
सुबह भी अचरज से घूरती मुझे ।
वो अब कोई गैर मानती मुझे ।।
शाम भी तार्रुफ़ से देखती मुझे ।
वो भी अज़नबी अब जानती मुझे ।।
हवाएं भी पता पूछती हैं मुझसे मेरा।
परिंदे कहें अज़नबी कौन है बता जरा ।।
खोजता हूं उन राहों को ।
फैलाऊ जहा अपनी बांहों को ।।
खोजूं मैं दर-ब-दर उन चाहों को ।
समेटने खोल दें जो अपनी बाँहों को ।।
लौट आया हूं मैं अब अपने ही शहर में ।
अज़नबी सा हूं मग़र अपने ही शहर में ।।
.....विवेक......
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें