बून्द चली मिलने तन साजन से ।
बरस उठी बदली बन गगन से ।
आस्तित्व खोजती वो क्षण में ।
उतर धरा पर ज़ीवन कण में ।
क्षितरी बार बार बिन साजन के ।
बाँटा जीवन अवनि तन मन में ।
बहती चली फिर नदिया बन के ।
मिलने साजन सागर के तन से ।
लुप्त हुई अपने साजन तन में ।
जा पहुँची साजन सागर मन मे ।
बून्द चली मिलने तन साजन से ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"©.....
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बरस उठी बदली बन गगन से ।
आस्तित्व खोजती वो क्षण में ।
उतर धरा पर ज़ीवन कण में ।
क्षितरी बार बार बिन साजन के ।
बाँटा जीवन अवनि तन मन में ।
बहती चली फिर नदिया बन के ।
मिलने साजन सागर के तन से ।
लुप्त हुई अपने साजन तन में ।
जा पहुँची साजन सागर मन मे ।
बून्द चली मिलने तन साजन से ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"©.....
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