शनिवार, 31 मार्च 2018

एक जीवन की खातिर

 जलता सूरज चलता सूरज ।
 उगता सूरज ढ़लता सूरज।
 मिलन निशा तरसा सूरज।
 संध्या सँग भटका सूरज।

 अंबर पर  चलता चँदा।
 पल पल रूप बदलता चँदा।
 ढ़लता  फिर खिलता चँदा।
  छलता बस छलता चँदा।

 क्यों बल खाती धरती।
 साँझ सबेरे भरमाती धरती।
 शीतल तरल सरल कभी,
 क्यों कभी तप जाती धरती।

  प्रश्न घनेरे मिलते हैं ।
 प्रश्न नही क्यों सुलझे हैं।
 एक जीवन की खातिर,
 ज़ीवन में क्यों उलझे हैं।
   ...विवेक दुबे"निश्चल"@....

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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