वो यूँ दुआ का करम फरमातीं है।
वद्दुआएँ अब बेरुखी फरमातीं हैं।
अहसान ज़िंदगी का इतना सा मुझ पर ।
करम फ़रमाया हर अहसास का मुझ पर ।
कैसी अदावत है आज मेहफिल की ।
खिड़कियाँ खुलती नही अब दिल की।
खोजता हूँ अपने आप को ,
आज भी हर मजलिस में ।
पाता नही अपने आप को ,
मैं दुनियाँ की मेहफिल में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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