ज़िंदगी के सफ़र की ,
वो कैसी घड़ी थी।
टिमटिमाते जुगनू ,
चाँदनी बिखरी पड़ी थी ।
ज़िंदगी के सफ़र की,
वो रात भी बड़ी थी ।
उठा था चिलमन ,
निग़ाह न मिली थी ।
ज़िंदगी के सफ़र की,
वो कशिश बड़ी थी ।
न ही कोई आरजू ,
जो सामने खड़ी थी ।
ज़िंदगी के सफ़र की ,
वो उलझन बड़ी थी ।
चला जिस राह पर ,
उसकी मंज़िल नही थी ।
ज़िंदगी के सफ़र में यह ,
राह कैसी मिली थी ।
पाउँगा न कोई मुक़ाम ,
मैं जानता हूँ मग़र ।
ज़िंदगी मेरी ,
सफ़र पे खड़ी थी ।
सफ़र पे खड़ी थी ......
...... विवेक दुबे "निश्चल"@....
वो कैसी घड़ी थी।
टिमटिमाते जुगनू ,
चाँदनी बिखरी पड़ी थी ।
ज़िंदगी के सफ़र की,
वो रात भी बड़ी थी ।
उठा था चिलमन ,
निग़ाह न मिली थी ।
ज़िंदगी के सफ़र की,
वो कशिश बड़ी थी ।
न ही कोई आरजू ,
जो सामने खड़ी थी ।
ज़िंदगी के सफ़र की ,
वो उलझन बड़ी थी ।
चला जिस राह पर ,
उसकी मंज़िल नही थी ।
ज़िंदगी के सफ़र में यह ,
राह कैसी मिली थी ।
पाउँगा न कोई मुक़ाम ,
मैं जानता हूँ मग़र ।
ज़िंदगी मेरी ,
सफ़र पे खड़ी थी ।
सफ़र पे खड़ी थी ......
...... विवेक दुबे "निश्चल"@....
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