ख़ातिर शे'र की कता कह बैठा ।
ज़िंदगी हसीं को ख़ता कह बैठा ।
उसूल भी नही थे पुराने कुछ मेरे ,
मैं नए रिवाज को पुराना कह बैठा ।
बैठ कर निग़ाह के सामने उसकी ।
मैं उस निग़ाह को बेगाना कह बैठा ।
खोजकर लाया मोती जिस समंदर से ,
मैं उस समंदर को दीवाना कह बैठा ।
मयस्सर नही चैन किसी को दुनियाँ में ,
मैं अपनी बेचैनियों को फ़साना कह बैठा ।
नादान रहा मैं अपने ही वास्ते बहुत ,
मेरी नादानियों को जमाना कह बैठा ।
क़िस्से वफ़ा के सुने हैं बहुत "निश्चल" ,
मैं फिर भी उसे क्यों बेगाना कह बैठा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@......
..
ज़िंदगी हसीं को ख़ता कह बैठा ।
उसूल भी नही थे पुराने कुछ मेरे ,
मैं नए रिवाज को पुराना कह बैठा ।
बैठ कर निग़ाह के सामने उसकी ।
मैं उस निग़ाह को बेगाना कह बैठा ।
खोजकर लाया मोती जिस समंदर से ,
मैं उस समंदर को दीवाना कह बैठा ।
मयस्सर नही चैन किसी को दुनियाँ में ,
मैं अपनी बेचैनियों को फ़साना कह बैठा ।
नादान रहा मैं अपने ही वास्ते बहुत ,
मेरी नादानियों को जमाना कह बैठा ।
क़िस्से वफ़ा के सुने हैं बहुत "निश्चल" ,
मैं फिर भी उसे क्यों बेगाना कह बैठा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@......
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