ज़िंदगी
पता ही न चला और ,
वक़्त गुज़र सा गया ।
पहर साँझ का कभी,
सुबह का ठहर सा गया ।
हँस गया हालात पर ,
कभी हालात हँस गया ।
हर हाल में बस ,
वक़्त गुज़रता ही गया ।
मैं डूबकर ग़म में ,
खुशियाँ मनाता गया ।
यूँ वास्ते ज़िंदगी ,
खुशियाँ लुटाता गया ।
..... विवेक दुबे "विवेक"©..
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