तू मेरा हक़ीम हुआ ,
होंसला-ऐ-यक़ीन हुआ ।
थामकर नब्ज़ सफ़र-ऐ-ज़िंदगी ,
तू मेरा मतीन हुआ ।
(मतीन/निर्धारित/ ठोस)
तलाश-ए-ज़िंदगी में गुम हुआ।
कुछ यूँ ज़िंदगी का मैं हुआ ।
अर्श पे अना लिए चलता रहा ।
गैरत-ऐ-अहसास चुभता रहा ।
तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।
खबर नही के तू बेखबर सा है ।
कदम कदम तू हम सफर सा है।
समझते हैं समझौता जिसे एक हार है वो ।
टूटता सामने "निश्चल"जिसके प्यार है वो ।
तपिश मेरी निग़ाह से वो पिघल उठे ।
ज़ुल्फ़ शाम तले चराग़ हम जल उठे ।
तेरी हर दुआ , रज़ा खुदा हो जाए ।
भटकी कश्ती का, तू नाख़ुदा हो जाए।
वो ख़्वाबों के दिन थे ,ख़यालों के दिन थे ।
जवां बहुत थे , मगर जरा कमसिन थे ।
निग़ाह मिलते ही ,तपिश-ऐ-ज़ज़्वात थे ।
मोम से हालात थे ,हम आग के साथ थे।
इश्क़ शराब हुआ,नशा बेहिसाब हुआ ।
मदहोश रिंद , साक़ी बे-ऐतवार हुआ ।
तक़दीर ही तकदीरें तय किया करती हैं ।
रास्ते वही मंज़िले बदल दिया करती हैं ।
दुआ के ताबीज को तरकीब बना लूँ मैं ।
उस तरकीब से तक़दीर सजा लूँ मैं ।
हम ही कहते हैं तुमसे कुछ अक़्सर ।
आओ कभी कहो तुम हमसे बेहतर ।
यह खामोशी कैसी ,लफ्ज़ से पोशी कैसी ।
क्यों रूठे आप से ,रुख से बेरुखी कैसी ।
देखकर यह हँसी, खुश तुम न होना।
रोककर अश्क़ जरा, कुछ तुम कह दो न।
हुनर वो नही , जो लेना जाने ।
हुनर वो है , जो देना जाने ।
तजुर्बे ज़िंदगी के , ज़िंदगी तजुर्बों की ।
अरमान सो बरस के, ज़िंदगी दो घड़ी की ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
होंसला-ऐ-यक़ीन हुआ ।
थामकर नब्ज़ सफ़र-ऐ-ज़िंदगी ,
तू मेरा मतीन हुआ ।
(मतीन/निर्धारित/ ठोस)
तलाश-ए-ज़िंदगी में गुम हुआ।
कुछ यूँ ज़िंदगी का मैं हुआ ।
अर्श पे अना लिए चलता रहा ।
गैरत-ऐ-अहसास चुभता रहा ।
तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।
खबर नही के तू बेखबर सा है ।
कदम कदम तू हम सफर सा है।
समझते हैं समझौता जिसे एक हार है वो ।
टूटता सामने "निश्चल"जिसके प्यार है वो ।
तपिश मेरी निग़ाह से वो पिघल उठे ।
ज़ुल्फ़ शाम तले चराग़ हम जल उठे ।
तेरी हर दुआ , रज़ा खुदा हो जाए ।
भटकी कश्ती का, तू नाख़ुदा हो जाए।
वो ख़्वाबों के दिन थे ,ख़यालों के दिन थे ।
जवां बहुत थे , मगर जरा कमसिन थे ।
निग़ाह मिलते ही ,तपिश-ऐ-ज़ज़्वात थे ।
मोम से हालात थे ,हम आग के साथ थे।
इश्क़ शराब हुआ,नशा बेहिसाब हुआ ।
मदहोश रिंद , साक़ी बे-ऐतवार हुआ ।
तक़दीर ही तकदीरें तय किया करती हैं ।
रास्ते वही मंज़िले बदल दिया करती हैं ।
दुआ के ताबीज को तरकीब बना लूँ मैं ।
उस तरकीब से तक़दीर सजा लूँ मैं ।
हम ही कहते हैं तुमसे कुछ अक़्सर ।
आओ कभी कहो तुम हमसे बेहतर ।
यह खामोशी कैसी ,लफ्ज़ से पोशी कैसी ।
क्यों रूठे आप से ,रुख से बेरुखी कैसी ।
देखकर यह हँसी, खुश तुम न होना।
रोककर अश्क़ जरा, कुछ तुम कह दो न।
हुनर वो नही , जो लेना जाने ।
हुनर वो है , जो देना जाने ।
तजुर्बे ज़िंदगी के , ज़िंदगी तजुर्बों की ।
अरमान सो बरस के, ज़िंदगी दो घड़ी की ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
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