रविवार, 25 मार्च 2018

तजुर्वे ज़िंदगी के

तू मेरा हक़ीम हुआ ,
           होंसला-ऐ-यक़ीन हुआ ।
 थामकर नब्ज़ सफ़र-ऐ-ज़िंदगी ,
                  तू मेरा मतीन हुआ ।
(मतीन/निर्धारित/ ठोस)

तलाश-ए-ज़िंदगी में गुम हुआ।
 कुछ यूँ ज़िंदगी का मैं हुआ ।

 अर्श पे अना लिए चलता रहा ।
 गैरत-ऐ-अहसास चुभता रहा ।

तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
 यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।

खबर नही के तू बेखबर सा है ।
कदम कदम तू हम सफर सा है।

 समझते हैं समझौता जिसे एक हार है वो ।
 टूटता सामने "निश्चल"जिसके प्यार है वो ।

तपिश मेरी निग़ाह से वो पिघल उठे ।
 ज़ुल्फ़ शाम तले चराग़ हम जल उठे । 

  तेरी हर दुआ , रज़ा खुदा हो जाए ।
 भटकी कश्ती का, तू नाख़ुदा हो जाए।

वो ख़्वाबों के दिन थे ,ख़यालों के दिन थे ।
 जवां बहुत थे , मगर जरा कमसिन थे ।

निग़ाह मिलते ही ,तपिश-ऐ-ज़ज़्वात थे ।
 मोम से हालात थे ,हम आग के साथ थे।

इश्क़ शराब हुआ,नशा बेहिसाब हुआ ।
 मदहोश रिंद , साक़ी बे-ऐतवार हुआ ।

 तक़दीर ही तकदीरें तय किया करती हैं ।
 रास्ते वही मंज़िले बदल दिया करती हैं ।

 दुआ के ताबीज को तरकीब बना लूँ मैं ।
 उस तरकीब से तक़दीर सजा लूँ मैं ।

हम ही कहते हैं तुमसे कुछ अक़्सर ।
 आओ कभी कहो तुम हमसे बेहतर ।

यह खामोशी कैसी ,लफ्ज़ से पोशी कैसी ।
 क्यों रूठे आप से ,रुख से बेरुखी कैसी ।

 देखकर यह हँसी, खुश तुम न  होना।
 रोककर अश्क़ जरा, कुछ तुम कह दो न।

हुनर वो नही ,   जो लेना जाने ।
हुनर वो है ,      जो देना जाने ।

तजुर्बे ज़िंदगी के , ज़िंदगी तजुर्बों की ।
अरमान सो बरस के, ज़िंदगी दो घड़ी की ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@.....



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