शनिवार, 15 दिसंबर 2018

मुक्तक 672/677

672

दुनियाँ कमतर ही आँकती रही।
चुभते तिनके से आँख सी रही ।

 फैलते रहे दरिया से किनारे पे  ,
 दुनियाँ इतनी ही साथ सी रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

673

मुझे समझने के लिए, फ़िकर चाहिए ।
निग़ाह नज़्र में ,  आब जिकर चाहिए ।

न समझ हो कुछ , समझने के लिए , 
फक़त दिल , इतना ही असर चाहिए ।

..विवेक दुबे"निश्चल"@.

677

इस वक़्त से नही कुछ भला है ।
नहीं इस वक़्त से कुछ भला है ।

गुजरता रहा हाल हर हालत से ,
मेरे सवाल का ज़वाब ये मिला है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

675

कुछ दिन की कतरन है ।
सब रीते से ही बर्तन है ।

रीते से दिन खाली खाली ,
रातों का उतरा यौवन है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

676

दिल की  यूँ झोली भर लो ।
खुशियों की बोली कर लो ।

       डूबकर खुशी के समंदर में ,
      जिंदगी कुछ होली कर लो ।

      ... विवेक दुबे"निश्चल"@.

677

कुछ फैसले किताबो से ।
कुछ फैसले मिज़ाज़ो से ।

बदल कर मिजाज अपना,
झुकते रहे जो सहारों से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

Blog.post 15/12/18

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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