ये कैसी कहानी है ।
आंखों का पानी है ।
ख़ुश्क रहा कोर में ,
वो इतनी निशानी है ।
रूठते नही रुठकर ,
जो आदत पुरानी है ।
मिलती रही हँसकर ,
ये दुनियाँ दीवानी है ।
ठहर जरा क्षण को ,
ये रात भी सुहानी है ।
भोर मिले चलना ,
रात तो बितानी है ।
"निश्चल" सहज हर पल को,
ये जिंदगी आनी जानी है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(61)
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