सोमवार, 10 दिसंबर 2018

ऐसा कोई मुक़ा ढूंढते है ।

वो जमीं वो गली वो मकां ढूंढते है ।
जो हो यहीं कहीं वो जहां ढूंढते है ।

टकराती साहिल से बेख़ौफ बेझिझक ,
मचलती उस मौज की दास्तां ढूंढते है ।

लफ्ज़ ख़ामोश ख़यालों की ख़ातिर ,
उस ज़ीस्त रूह की जुबां ढूंढते हैं ।

जलते गुलिस्तां नफ़रत की आग में ,
निग़ाह आब की कोई अना ढूंढते है ।

 सींचे चाहत-ए-आब से गुल को ,
 गुलशन का कोई बागवां ढूंढते है ।

लूटते है दरिया साहिल को ,
मौज मैं किनारे वफ़ा ढूंढते है ।

करते रहे सफ़र सफर की खातिर ,
छूटते क़दमो के निशां ढूंढते है ।

पता मिले मंज़िल का जिस जगह पे,
चल"निश्चल" ऐसा कोई मुक़ा ढूंढते है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(58)
अना/अहमं

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