गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

तुझे देखकर भी न देखते रहे ।

दिल यूँ कुछ भटकते रहे ।
ख़्याल बीच अटकते रहे ।

न जा सके पार ख़यालों के ,
ख़्याल से ही लिपटते रहे ।
...
हम बार बार रोकते रहे ।
नज़्र निग़ाह से टोकते रहे ।

उलझकर निग़ाह की चाह में ,
हम खुद खुद को कोसते रहे ।
...
 मन सँग बदन लपेटते रहे ।
तन बदन को समेटते रहे ।

एक पहचान की चाहत में ,
तुझे देखकर भी न देखते रहे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सद्गुरु
डायरी 6(64)

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