दिल यूँ कुछ भटकते रहे ।
ख़्याल बीच अटकते रहे ।
न जा सके पार ख़यालों के ,
ख़्याल से ही लिपटते रहे ।
...
हम बार बार रोकते रहे ।
नज़्र निग़ाह से टोकते रहे ।
उलझकर निग़ाह की चाह में ,
हम खुद खुद को कोसते रहे ।
...
मन सँग बदन लपेटते रहे ।
तन बदन को समेटते रहे ।
एक पहचान की चाहत में ,
तुझे देखकर भी न देखते रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सद्गुरु
डायरी 6(64)
ख़्याल बीच अटकते रहे ।
न जा सके पार ख़यालों के ,
ख़्याल से ही लिपटते रहे ।
...
हम बार बार रोकते रहे ।
नज़्र निग़ाह से टोकते रहे ।
उलझकर निग़ाह की चाह में ,
हम खुद खुद को कोसते रहे ।
...
मन सँग बदन लपेटते रहे ।
तन बदन को समेटते रहे ।
एक पहचान की चाहत में ,
तुझे देखकर भी न देखते रहे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सद्गुरु
डायरी 6(64)
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