664
रुक हार कहीं जो थकता है ।
यह काल उसे ही ठगता है ।
सहता है जो धूप ताप को ,
फ़ल वही तो पकता है ।
कहलाता तरल नीर वो भी ,
पोखर में जो जल रुकता है ।
बहता है जो नीर नदी सा ,
सागर में वो ही रूपता है ।
जो चलकर भी "निश्चल" रहता ,
पाषाण मील सा वो सजता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(75)
रुक हार कहीं जो थकता है ।
यह काल उसे ही ठगता है ।
सहता है जो धूप ताप को ,
फ़ल वही तो पकता है ।
कहलाता तरल नीर वो भी ,
पोखर में जो जल रुकता है ।
बहता है जो नीर नदी सा ,
सागर में वो ही रूपता है ।
जो चलकर भी "निश्चल" रहता ,
पाषाण मील सा वो सजता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(75)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें