गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।

हर बह्र से खारिज ग़जल मेरी ।
कुछ कहती निग़ाह मचल मेरी ।

 उठते जो तूफ़ान रूह समंदर में ,
 अल्फ़ाज़ को छूती हलचल मेरी ।

आँख के गिरते क़तरे क़तरे को ,
ज़ज्ब कर जाती कलम चल मेरी ,
    
     खो गया क़तरा सा समंदर में ,
    बस इतनी ही एक दखल मेरी ।

मिल गया वाह जिसे अंजाम में ,
हो गई वो ग़जल मुकम्मल मेरी ।

     मिलता रहा साँझ सा भोर से ,
     हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(74)

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