हर बह्र से खारिज ग़जल मेरी ।
कुछ कहती निग़ाह मचल मेरी ।
उठते जो तूफ़ान रूह समंदर में ,
अल्फ़ाज़ को छूती हलचल मेरी ।
आँख के गिरते क़तरे क़तरे को ,
ज़ज्ब कर जाती कलम चल मेरी ,
खो गया क़तरा सा समंदर में ,
बस इतनी ही एक दखल मेरी ।
मिल गया वाह जिसे अंजाम में ,
हो गई वो ग़जल मुकम्मल मेरी ।
मिलता रहा साँझ सा भोर से ,
हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(74)
कुछ कहती निग़ाह मचल मेरी ।
उठते जो तूफ़ान रूह समंदर में ,
अल्फ़ाज़ को छूती हलचल मेरी ।
आँख के गिरते क़तरे क़तरे को ,
ज़ज्ब कर जाती कलम चल मेरी ,
खो गया क़तरा सा समंदर में ,
बस इतनी ही एक दखल मेरी ।
मिल गया वाह जिसे अंजाम में ,
हो गई वो ग़जल मुकम्मल मेरी ।
मिलता रहा साँझ सा भोर से ,
हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(74)
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