रविवार, 1 अप्रैल 2018

जीवन की गलियां

भटका चलते चलते ज़ीवन की गलियों में।
खोज रहा खुद को मैं मन की गलियों में।
 जटिल बड़ी भूल भुलैया इस ज़ीवन की ,
 कैसे गुजरुँ जीवन की उलझी गलियों में।

 प्रश्न यही एक आता हर चौराहे पर,
 कब तक गुजरुँ फिर इन गलियों में ।
 आता जाता फिर मुड़ मुड़ जाता ,
 आंत हीन जीवन की गलियों में।
     भटका चलते चलते...

..."विवेक दुबे"निश्चल"@..

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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