रविवार, 22 अप्रैल 2018

चाह में रोशनी की

तपिश निग़ाह से पिघल उठे ।
निग़ाह चाँद से सितारे जल उठे ।

 चाह में रोशनी की खातिर ,
 साथ परछाइयों के चल उठे ।

 टूटकर उजाले पहलू में रात के ,
 शबनम से जमीं पे बिखर पड़े ।

 हो गया वो रुख़सत मासूमियत से,
  निग़ाह तले ले उसे हम चल पड़े ।

 थे क़तरे निग़ाह में आबरू की खातिर ।
 बे-आबरू हो क़तरे निग़ाह निकल पड़े ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...