वेदना उसकी बड़ी भारी थी ।
भूख जिसकी एक लाचारी थी ।
देखती आभार निष्छल भाव से ,
और निगाहें उसकी आभारी थीं ।
खोज रही आँखें उसमे उसको ।
कोख धरा था जिसने उसको ।
यह कोख़ जना नही है कोई ,
सोच सोच ममता मूरत रोई ।
....
अपने ईस्वर को मना लें जरा ।
भूंखे को एक निवाला दें जरा ।
आस्था के थाल में अपने भी,
जल जाएं दिये सेवा के जरा ।
..... *विवेक दुबे"निश्चल"* @....
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