सोमवार, 5 मार्च 2018

प्रेत अभिलाषाओं का

  प्रेत जगा एक अभिलाषाओं का ।
 कुछ मृत आस पिपासाओं का ।
 आ कर बैठा है जो कांधों पर ,
 प्रश्न पूछता आधे छूटे वादों का ।

 ले मौन , चला मंज़िल अपनी ,
 हृदय मन फ़ौलाद इरादों सा । 
 मार दिए जो सपने उसने अपने ,
 ठोकर कदमों से ख़ाक उड़ाता सा ।
...

आशाएँ ले अभिलाषाओं सँग जगा सा।
 लेकर ज़िंदगी को "निश्चल" वो भागा सा  । 
 ठहरी नही कभी जो "निश्चल" रहकर ,
 जीवन को जीवन से वो देता काँधा सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...







आशाएँ अभिलाषाएँ ही जागतीं हैं ।
यह ज़िंदगी तो "निश्चल" भागती है । 
 ठहरती नही कभी निश्चल रहकर ,
 ज़िंदगी को ज़िंदगी कब बांधती है ।

..

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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