शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

मुक्तक 436

436
वो कुछ यूँ छल रहा है ।
कहता वक़्त बदल रहा है ।
 दिवा स्वप्न दिखला कर ,
 आगे आगे चल रहा है ।
 437
होती पतझड़ उम्मीदों की 
बसन्त मौसम खल रहा है ।
 पोष मास के जाड़ों में ,
हिमगिर भी पिघल रहा है ।
438
लज़्ज़ता छोड़ निर्लज़्ज़ता ओढ़ी ।
शर्म हया भी रही नही जरा थोड़ी ।
 रहे नही शिष्ट आचरण अब कुछ ,
 अहंकार की चुनर कुछ ऐसी ओढ़ी ।
....
439
किस्मत के खेल खिलाती है जिंदगी ।
किताबों में नही वो दिखती है जिंदगी ।
चलने की चाह में ही हर दम  ,
दुनियाँ की ठोकरें खिलाती है जिंदगी ।
......
440
आज इंसान ग़ुम हो रहा है ।
 इतना मज़लूम हो रहा है ।
खा रहे वो कसमें ईमान की ,
 यूँ ईमान का खूं हो रहा है ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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