वो दुनियाँ को समझता न था ।
वो राहों से भटकता न था ।
क़ैद सा अपनी ही बंदिशों में ,
वो खुद को सहजता न था।
ठहर कर एक ख़ुशी के वास्ते ,
दुनियाँ के रंज से सिमटता न था ।
जो चला मंजिल के वास्ते ,
वो राह से पलटता न था ।
ज़ुदा अश्क़ निग़ाह से ,
जमीं पे बिखरता न था ।
कैसा दौर था जिंदगी का "निश्चल" ,
वक़्त मुफलिसी का बदलता न था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
वो राहों से भटकता न था ।
क़ैद सा अपनी ही बंदिशों में ,
वो खुद को सहजता न था।
ठहर कर एक ख़ुशी के वास्ते ,
दुनियाँ के रंज से सिमटता न था ।
जो चला मंजिल के वास्ते ,
वो राह से पलटता न था ।
ज़ुदा अश्क़ निग़ाह से ,
जमीं पे बिखरता न था ।
कैसा दौर था जिंदगी का "निश्चल" ,
वक़्त मुफलिसी का बदलता न था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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