काँच के समान से ।
खाली से मकान से ।
ज़िंदगी की राहों पे ,
छूटे कुछ निशान से ।
चलते रहे हम दिन भर ,
अपनी राहों से अंजान से ।
बह रहा दरिया वक़्त का ,
उठते थमते तूफ़ान से ।
टूटकर शाख से फूल कोई ,
दूर हुआ अपनी पहचान से ।
वो हिमालय खड़ा है "निश्चल"
आज भी अपनी शान से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
खाली से मकान से ।
ज़िंदगी की राहों पे ,
छूटे कुछ निशान से ।
चलते रहे हम दिन भर ,
अपनी राहों से अंजान से ।
बह रहा दरिया वक़्त का ,
उठते थमते तूफ़ान से ।
टूटकर शाख से फूल कोई ,
दूर हुआ अपनी पहचान से ।
वो हिमालय खड़ा है "निश्चल"
आज भी अपनी शान से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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