शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

चाहत ही मचलतीं रही

एक चाहत ही मचलती रही ।
जिंदगी भी रंग बदलती रही ।

झुकाकर वो निग़ाह राह से ,
 हर बार ही निकलती रही ।

 खुश गवारीयों के मौसम में ,
 शबनम फूल फिसलती रही ।

 आकर जमीं के दमन में ,
 कदमों तले कुचलती रही ।

 न चली साँझ साथ रात के ,
 किस्मत क्युं खिसलती रही ।

 खो गया सितार वो भोर का ,
 भोर तले रात दहलती रही ।

 "निश्चल" के हर अंदाज़ से ,
  निग़ाह क्युं मचलती रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 20/7/18

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