एक लफ्ज़ निगाहों से सुन कर ।
एक ख़्वाब हंसीं सा बुनकर ।
ओढ़कर चादर ख़यालों की ,
चलता रहा साथ मेरे दिन भर ।
आया एक मुक़ाम फिर कोई ,
साँझ तले खो गया दिन कर ।
चाहतें थीं उसकी और कोई ,
समझ सका न मैं मुख़्तसर ।
ग़ुम हुआ अंधेरों में मैं भी कहीं ,
खोज सका न ठिकाना सहर भर ।
चाहत में बस एक मंजिल की ,
चलता ही रहा मेरा यह सफर ।
एक लफ्ज़ निगाहों से सुनकर ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
एक ख़्वाब हंसीं सा बुनकर ।
ओढ़कर चादर ख़यालों की ,
चलता रहा साथ मेरे दिन भर ।
आया एक मुक़ाम फिर कोई ,
साँझ तले खो गया दिन कर ।
चाहतें थीं उसकी और कोई ,
समझ सका न मैं मुख़्तसर ।
ग़ुम हुआ अंधेरों में मैं भी कहीं ,
खोज सका न ठिकाना सहर भर ।
चाहत में बस एक मंजिल की ,
चलता ही रहा मेरा यह सफर ।
एक लफ्ज़ निगाहों से सुनकर ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
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